"रामगढ़ सेठान" शेखावाटी का महत्तवपूर्ण व प्रमुख क़स्बा है यह क़स्बा बनियों (सेठों) द्वारा बसाया हुआ है, हालाँकि राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है कि-
"गांव बसावै बाणियो, पार पड़े जद जाणियौ"
अब ये कहावत कब और किस कस्बे के लिए पड़ी ये तो मुझे पता नहीं पर इस रामगढ़ शेखावाटी कस्बे ने इस कहावत को चरितार्थ नहीं होने दिया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि यह कस्बा बसा तो बनियों के लिए, पर ये बसवाया गया था सीकर के राव राजा रामसिंह जी ने। उनके नाम पर ही इस कस्बे का नाम रामगढ़ रखा गया था।
कालेज के दिनों में मैंने सीकर का इतिहास पढ़ा था जिसमे लिखा मुझे याद है कि- एक बार सीकर के राजा राव रामसिंह जी अपनी ससुराल चुरू गए थे। उस वक्त सीकर से ज्यादा चुरू में व्यवसायी (बनिए) निवास करते थे जिस राज्य में व्यवसायी जितने ज्यादा होते थे उसकी आर्थिक स्थिति भी उतनी ही सुदृढ़ होती थी। और राजा की आर्थिक स्थिति भी उसके राज के सेठों को देखकर ही आंकी जाती थी। राम सिंह जी को ससुराल में किसी ने ताना मारा कि -"उनके यहाँ तो सेठ बहुत कम है और यहाँ चुरू में तो बहुत है।" मतलब आप आर्थिक हैसियत से हमसे कम है। बस रामसिंह जी को बात चुभ गयी उन्होंने सीकर आते ही अपने राज्य के डाकुओं को बुलाकर चुरू के सेठों के यहाँ डाके डालने की छुट दे दी।
अब सीकर राज्य के डाकू चुरू राज्य में डाका डाल सीकर राज्य में घुस जाए और चुरू के सैनिक देखते रह जाए। आखिर चुरू के सेठों ने एक दिन अपना प्रतिनिधि मंडल सीकर राजा के पास भेज अपनी सुरक्षा की गुहार की। सीकर राजा ने कह दिया- "बसने के लिए जमीन दूंगा और साथ ही पूरी सुरक्षा पर आपको सीकर राज्य की सीमा में बसना होगा।
इस तरह चुरू के सेठ सीकर राज्य में "रामगढ़ सेठान" नाम का कस्बा बसा कर बसे। सीकर राजा ने उन्हें सुरक्षा व अन्य प्रकार की सभी सहायता दी।
इसी कस्बे में एक सेठ अणतराम जी पोद्दार रहते थे वे धनी होने के साथ ही बहुत दानशील, धार्मिक प्रवृति के थे। गरीबों को खाना,कपड़े, ब्राह्मणों को भोजन करवाने व जन-कल्याण कार्यक्रम वे सतत चलाते ही रहते थे।
एक बार वे कस्बे से बाहर बने अपने बगीचे की बड़ी सी हवेली की छत पर कुछ ब्राह्मणों के साथ रात्री भोजन के बाद टहल रहे थे कि उन्होंने बीहड़ से आती गीदड़ों की हु- हु की आवाजें सुनी और उपस्थित ब्राह्मणों से पूछा कि - ये गीदड़ रो क्यों रहे है ?
एक ब्राह्मण बोला- " सेठ जी ! ये भूखे है और भूख के मारे रो रहे है।
सेठ जी ने अपने मुनीम को बुलाकर दुसरे ही दिन कस्बे के सभी हलवाइयों को गीदड़ों के लिए मिठाई बनाने के लिए लगा दिया और ब्राह्मणों की ड्यूटी मिठाई गीदड़ों तक पहुंचाने की लगा दी।
कुछ दिन फिर एक दिन उसी ब्राह्मण दल के साथ सेठ जी अपने बगीचे वाली हवेली की छत पर टहल रहे थे कि फिर गीदड़ों की आवाज सुनी और पूछा -
"कि अब ये क्यों रो रहे है ? क्या अभी भी ये भूखे है ?
एक ब्राह्मण बोला-"सेठ जी ! आजकल सर्दी का मौसम है और ये बेचारे सर्दी से ठिठुर रहे है इसलिए रो रहे है।
सेठ जी ने सुबह अपने मुनीम जी को बुला आदेश दे दिया कि- कस्बे की व आसपास के कस्बे की दुकानों पर जितनी रजाई,कम्बल मिले खरीदकर इन ब्राह्मणों को दे दो ताकि ये बीहड़ में गीदड़ों तक पहुंचा दे।
बेचारा मुनीम सेठ जी के गीदड़ों के लिए इस तरह के आदेश से बहुत असमंजस में था क्योंकि न तो गीदड़ कम्बल ओढ़ते और ना ही मिठाई खाते। पर वह बेचारा कर भी क्या सकता था आखिर सेठ जी का आदेश तो उसे मानना ही था।
इसी तरह कुछ दिन बाद फिर एक दिन गर्मियों में सेठ जी अपनी उसी हवेली की छत पर उन्हीं ब्राह्मणों के दल के साथ टहल रहे थे कि तभी गीदड़ों की हु-हु सुनाई दी।
सेठ जी ब्राह्मणों से बोले -" अब ये क्यों रो रहे है ?
एक ब्राह्मण बोला -"सेठ जी! अब बीहड़ में कोई तालाब तो है नहीं जिसमे बारह महीनों पानी रहता हो सो बेचारे गर्मियों में प्यास के मारे रो रहे है।"
सुनते ही सेठ जी के दिमाग में पशुओं की यह समस्या आई कि- वास्तव में इस बीहड़ में एसा कोई पक्का तालाब नहीं है जिसमे बारह महीनों पानी रहता हो, तो इस हालत में बेचारे जंगली जानवरों व पशुओं का क्या हाल होता होगा? क्यों न इस बीहड़ में एक पक्का तालाब बना दिया जाए जो बारह महीनों पानी से भरा रहे और ये आप-पास के गांवों के पशुधन को कम बारिश होने पर बचाने के लिए जरुरी भी है।
सुबह होते ही सेठ जी ने मुनीम जी को बुला बीहड़ में गीदड़ों के लिए एक पक्का तालाब बनवाने का कार्य शुरू करने का आदेश दिया। मुनीम जी का चेहरा देख सेठ जी समझ गए और कहने लगे-
" मुनीम जी! मुझे मालूम है गीदड़ मिठाई नहीं खाते,कम्बल नहीं ओढ़ते और इनके लिए पक्के तालाब की भी कोई जरूरत नहीं। पर गीदड़ों के नाम पर बनी मिठाई कितने गरीबों के मुंह में गयी होगी ? गीदड़ों के नाम पर बंटवाई गयी कम्बलें कितने जरुरत मंद लोगों के घरों में पहुंची होगी ? ये समझिये इस बहाने जन-कल्याण के कार्य ही हो रहे है।
अब पक्का तालाब बनेगा तो बीहड़ व आस-पास के गांवों के कितने जंगली जानवर व पालतू पशुओं के लिए बारह महीने पानी की व्यवस्था हो जाएगी। इस तरह आस-पास के गांवों का पशुधन भी बचेगा। ये किसी भी जन-कल्याण के कार्य से बेहतर होगा। और मुनीम जी ने बिना देरी किये गीदड़ों के लिए बीहड़ में पक्का तालाब बनवाने का कार्य शुरू करवा तालाब बनवा दिया। इस तरह सेठ अणतराम जी पोद्दार की दूरदर्शिता व जन-कल्याण के लिए सेवा भावना के परिणाम स्वरूप उस तालाब का निर्माण हुआ जो आज भी विद्यमान है और "गीदड़ों वाला तालाब" के नाम से ही जाना जाता है।
तालाब बनने के कुछ दिन बाद एक दिन फिर सेठ जी उसी ब्राह्मण दल के साथ हवेली की छत पर हवा खाने टहल रहे थे कि फिर गीदड़ों की हु-हु सुन बोले-
"हे ब्राह्मण देवो ! अब इन गीदड़ों के लिए और क्या कमी रही गयी जो ये रो रहे है ?"
तभी एक ब्राह्मण बोला-" सेठ जी! अब ये रो नहीं रहे बल्कि हु-हु कर आपकी जयकार कर रहे है।
और ये सुन सेठ जी सहित उपस्थित सभी लोग हंसने लगे।
राजस्थान में राजाओं के राज में सेठों की बहुत इज्जत होती थी राजा व प्रजा दोनों सेठ जी की बहुत इज्जत किया करते थे कारण स्पष्ट था- राजस्थान में इतनी पैदावार तो थी नहीं कि राजा प्रजा से कर वसूलकर अपना राज्य कार्य चला सके। राजा को भी राज्य कार्य के लिए धन सेठों से ही मिलता था बदले में राजा सेठों को व्यवसाय के लिए सुविधाएँ व सुरक्षा मुहैया कराते थे।
राजस्थान के सेठ लोग जन-कल्याण के कार्यों में भी दिल खोलकर खर्च करते थे अत: आम जनता के दिल में भी उन सेठों के प्रति बहुत आदर भाव होता था जो आज भी पुराने सेठों का नाम आते ही देखा जा सकता है। राजस्थान में आप जिधर नजर डालेंगे उधर ही पुराने समय में सेठों द्वारा बनाये गए बड़े बड़े स्कूल कालेज भवन, धर्मशालाएं पीने के पानी के लिए कुँए पक्के तालाब आपको नजर आ जायेंगे।
पर आजादी के बाद इन्हीं सेठों की नई पीढ़ी इस तरह के जन-कल्याण कार्यों से एकदम दूर है, हां नई पीढ़ी ने राजस्थान में कई शिक्षण संस्थान खोले जरुर है पर सभी व्यवसायिक है उनका मकसद जन-कल्याण नहीं सिर्फ धन कमाना है और हो भी क्यों नहीं? अब सेठों की नई पीढ़ी नए शासकों के सानिध्य में रहती है जिसका भी मकसद सिर्फ धन कमाकर स्विस बैंकों के खातों को भरने का रहता है अत: सेठों की नई पीढ़ी को भी क्या दोष दें ?
पहले के राजा सेठों को जन-कल्याण के कार्यों के लिए प्रेरित करते थे अब के शासक आजकल के सेठों को व्यवसाय बढ़ाने के लिए दी गयी सुविधाओं के बदले अपने लिए धन जुटाने को बाध्य करते है।
"गांव बसावै बाणियो, पार पड़े जद जाणियौ"
अब ये कहावत कब और किस कस्बे के लिए पड़ी ये तो मुझे पता नहीं पर इस रामगढ़ शेखावाटी कस्बे ने इस कहावत को चरितार्थ नहीं होने दिया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि यह कस्बा बसा तो बनियों के लिए, पर ये बसवाया गया था सीकर के राव राजा रामसिंह जी ने। उनके नाम पर ही इस कस्बे का नाम रामगढ़ रखा गया था।
कालेज के दिनों में मैंने सीकर का इतिहास पढ़ा था जिसमे लिखा मुझे याद है कि- एक बार सीकर के राजा राव रामसिंह जी अपनी ससुराल चुरू गए थे। उस वक्त सीकर से ज्यादा चुरू में व्यवसायी (बनिए) निवास करते थे जिस राज्य में व्यवसायी जितने ज्यादा होते थे उसकी आर्थिक स्थिति भी उतनी ही सुदृढ़ होती थी। और राजा की आर्थिक स्थिति भी उसके राज के सेठों को देखकर ही आंकी जाती थी। राम सिंह जी को ससुराल में किसी ने ताना मारा कि -"उनके यहाँ तो सेठ बहुत कम है और यहाँ चुरू में तो बहुत है।" मतलब आप आर्थिक हैसियत से हमसे कम है। बस रामसिंह जी को बात चुभ गयी उन्होंने सीकर आते ही अपने राज्य के डाकुओं को बुलाकर चुरू के सेठों के यहाँ डाके डालने की छुट दे दी।
अब सीकर राज्य के डाकू चुरू राज्य में डाका डाल सीकर राज्य में घुस जाए और चुरू के सैनिक देखते रह जाए। आखिर चुरू के सेठों ने एक दिन अपना प्रतिनिधि मंडल सीकर राजा के पास भेज अपनी सुरक्षा की गुहार की। सीकर राजा ने कह दिया- "बसने के लिए जमीन दूंगा और साथ ही पूरी सुरक्षा पर आपको सीकर राज्य की सीमा में बसना होगा।
इस तरह चुरू के सेठ सीकर राज्य में "रामगढ़ सेठान" नाम का कस्बा बसा कर बसे। सीकर राजा ने उन्हें सुरक्षा व अन्य प्रकार की सभी सहायता दी।
इसी कस्बे में एक सेठ अणतराम जी पोद्दार रहते थे वे धनी होने के साथ ही बहुत दानशील, धार्मिक प्रवृति के थे। गरीबों को खाना,कपड़े, ब्राह्मणों को भोजन करवाने व जन-कल्याण कार्यक्रम वे सतत चलाते ही रहते थे।
एक बार वे कस्बे से बाहर बने अपने बगीचे की बड़ी सी हवेली की छत पर कुछ ब्राह्मणों के साथ रात्री भोजन के बाद टहल रहे थे कि उन्होंने बीहड़ से आती गीदड़ों की हु- हु की आवाजें सुनी और उपस्थित ब्राह्मणों से पूछा कि - ये गीदड़ रो क्यों रहे है ?
एक ब्राह्मण बोला- " सेठ जी ! ये भूखे है और भूख के मारे रो रहे है।
सेठ जी ने अपने मुनीम को बुलाकर दुसरे ही दिन कस्बे के सभी हलवाइयों को गीदड़ों के लिए मिठाई बनाने के लिए लगा दिया और ब्राह्मणों की ड्यूटी मिठाई गीदड़ों तक पहुंचाने की लगा दी।
कुछ दिन फिर एक दिन उसी ब्राह्मण दल के साथ सेठ जी अपने बगीचे वाली हवेली की छत पर टहल रहे थे कि फिर गीदड़ों की आवाज सुनी और पूछा -
"कि अब ये क्यों रो रहे है ? क्या अभी भी ये भूखे है ?
एक ब्राह्मण बोला-"सेठ जी ! आजकल सर्दी का मौसम है और ये बेचारे सर्दी से ठिठुर रहे है इसलिए रो रहे है।
सेठ जी ने सुबह अपने मुनीम जी को बुला आदेश दे दिया कि- कस्बे की व आसपास के कस्बे की दुकानों पर जितनी रजाई,कम्बल मिले खरीदकर इन ब्राह्मणों को दे दो ताकि ये बीहड़ में गीदड़ों तक पहुंचा दे।
बेचारा मुनीम सेठ जी के गीदड़ों के लिए इस तरह के आदेश से बहुत असमंजस में था क्योंकि न तो गीदड़ कम्बल ओढ़ते और ना ही मिठाई खाते। पर वह बेचारा कर भी क्या सकता था आखिर सेठ जी का आदेश तो उसे मानना ही था।
इसी तरह कुछ दिन बाद फिर एक दिन गर्मियों में सेठ जी अपनी उसी हवेली की छत पर उन्हीं ब्राह्मणों के दल के साथ टहल रहे थे कि तभी गीदड़ों की हु-हु सुनाई दी।
सेठ जी ब्राह्मणों से बोले -" अब ये क्यों रो रहे है ?
एक ब्राह्मण बोला -"सेठ जी! अब बीहड़ में कोई तालाब तो है नहीं जिसमे बारह महीनों पानी रहता हो सो बेचारे गर्मियों में प्यास के मारे रो रहे है।"
सुनते ही सेठ जी के दिमाग में पशुओं की यह समस्या आई कि- वास्तव में इस बीहड़ में एसा कोई पक्का तालाब नहीं है जिसमे बारह महीनों पानी रहता हो, तो इस हालत में बेचारे जंगली जानवरों व पशुओं का क्या हाल होता होगा? क्यों न इस बीहड़ में एक पक्का तालाब बना दिया जाए जो बारह महीनों पानी से भरा रहे और ये आप-पास के गांवों के पशुधन को कम बारिश होने पर बचाने के लिए जरुरी भी है।
सुबह होते ही सेठ जी ने मुनीम जी को बुला बीहड़ में गीदड़ों के लिए एक पक्का तालाब बनवाने का कार्य शुरू करने का आदेश दिया। मुनीम जी का चेहरा देख सेठ जी समझ गए और कहने लगे-
" मुनीम जी! मुझे मालूम है गीदड़ मिठाई नहीं खाते,कम्बल नहीं ओढ़ते और इनके लिए पक्के तालाब की भी कोई जरूरत नहीं। पर गीदड़ों के नाम पर बनी मिठाई कितने गरीबों के मुंह में गयी होगी ? गीदड़ों के नाम पर बंटवाई गयी कम्बलें कितने जरुरत मंद लोगों के घरों में पहुंची होगी ? ये समझिये इस बहाने जन-कल्याण के कार्य ही हो रहे है।
अब पक्का तालाब बनेगा तो बीहड़ व आस-पास के गांवों के कितने जंगली जानवर व पालतू पशुओं के लिए बारह महीने पानी की व्यवस्था हो जाएगी। इस तरह आस-पास के गांवों का पशुधन भी बचेगा। ये किसी भी जन-कल्याण के कार्य से बेहतर होगा। और मुनीम जी ने बिना देरी किये गीदड़ों के लिए बीहड़ में पक्का तालाब बनवाने का कार्य शुरू करवा तालाब बनवा दिया। इस तरह सेठ अणतराम जी पोद्दार की दूरदर्शिता व जन-कल्याण के लिए सेवा भावना के परिणाम स्वरूप उस तालाब का निर्माण हुआ जो आज भी विद्यमान है और "गीदड़ों वाला तालाब" के नाम से ही जाना जाता है।
तालाब बनने के कुछ दिन बाद एक दिन फिर सेठ जी उसी ब्राह्मण दल के साथ हवेली की छत पर हवा खाने टहल रहे थे कि फिर गीदड़ों की हु-हु सुन बोले-
"हे ब्राह्मण देवो ! अब इन गीदड़ों के लिए और क्या कमी रही गयी जो ये रो रहे है ?"
तभी एक ब्राह्मण बोला-" सेठ जी! अब ये रो नहीं रहे बल्कि हु-हु कर आपकी जयकार कर रहे है।
और ये सुन सेठ जी सहित उपस्थित सभी लोग हंसने लगे।
राजस्थान में राजाओं के राज में सेठों की बहुत इज्जत होती थी राजा व प्रजा दोनों सेठ जी की बहुत इज्जत किया करते थे कारण स्पष्ट था- राजस्थान में इतनी पैदावार तो थी नहीं कि राजा प्रजा से कर वसूलकर अपना राज्य कार्य चला सके। राजा को भी राज्य कार्य के लिए धन सेठों से ही मिलता था बदले में राजा सेठों को व्यवसाय के लिए सुविधाएँ व सुरक्षा मुहैया कराते थे।
राजस्थान के सेठ लोग जन-कल्याण के कार्यों में भी दिल खोलकर खर्च करते थे अत: आम जनता के दिल में भी उन सेठों के प्रति बहुत आदर भाव होता था जो आज भी पुराने सेठों का नाम आते ही देखा जा सकता है। राजस्थान में आप जिधर नजर डालेंगे उधर ही पुराने समय में सेठों द्वारा बनाये गए बड़े बड़े स्कूल कालेज भवन, धर्मशालाएं पीने के पानी के लिए कुँए पक्के तालाब आपको नजर आ जायेंगे।
पर आजादी के बाद इन्हीं सेठों की नई पीढ़ी इस तरह के जन-कल्याण कार्यों से एकदम दूर है, हां नई पीढ़ी ने राजस्थान में कई शिक्षण संस्थान खोले जरुर है पर सभी व्यवसायिक है उनका मकसद जन-कल्याण नहीं सिर्फ धन कमाना है और हो भी क्यों नहीं? अब सेठों की नई पीढ़ी नए शासकों के सानिध्य में रहती है जिसका भी मकसद सिर्फ धन कमाकर स्विस बैंकों के खातों को भरने का रहता है अत: सेठों की नई पीढ़ी को भी क्या दोष दें ?
पहले के राजा सेठों को जन-कल्याण के कार्यों के लिए प्रेरित करते थे अब के शासक आजकल के सेठों को व्यवसाय बढ़ाने के लिए दी गयी सुविधाओं के बदले अपने लिए धन जुटाने को बाध्य करते है।