जालौर दुर्ग मारवाड़ का सुदृढ़ गढ़ है। इसे परमारों ने बनवाया था। यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौड़ों के आधीन रहा। यह राजस्थान में ही नही अपितु सारे देश में अपनी प्राचीनता, सुदृढ़ता और सोनगरा चौहानों के अतुल शौर्य के कारण प्रसिद्ध रहा है।

देश के सबसे अजेय किलों में से एक के रूप में माने जाने वाला जलोलर किले के बारे में एक प्रसिद्ध कथानक है- "आकाश फट जाए , पृथ्वी उल्टा हो जाए , लोहे के कवच को टुकड़ों हो जाए, शरीर को अकेले लड़ना पड़े , लेकिन जालोर समर्पण न करें "। पारंपरिक हिंदू वास्तुकला शैली में निर्मित, जलोलर किला एक खड़ी पहाड़ी पर 1200 मीटर की ऊंचाई में स्थित है। जालोर का किला इतनी ऊँचा था कि पूरे शहर के मनोरम दृश्य के लिए उपयुक्त था।
किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वा पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२० फुट तक हो जाती है।
इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं।
यहां से रास्ते के दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से देखने पर भयावह लगती है।
जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था। पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था।
वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है।
जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं। दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है।
जालौर दुर्ग का इतिहास
१२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन किया।
गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे, उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा।
इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया।
तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ।
कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है।
महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया।
१८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे।
इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है।
जालोर फोर्ट के दिलचस्प तथ्य
☯ जब अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर किला पर हमला किया, तो कई राजपूत सैनिक मारे गए, उनकी पत्नियां जलती हुई आग के तालाब में कूदकर खुद को मौत के घाट उतार दिया , ताकि सेना का विरोध करने से उनके सम्मान को बचाया जा सके। यह राजपूत महिलाओं के बीच उच्चतम त्याग की एक लोकप्रिय परंपरा थी और “जौहर” के रूप में जाना जाता था।
☯ किले का मुख्य आकर्षण यहां उजाड़ हुआ आवासीय पैलेस है, जो अब चारों ओर विशाल रॉक संरचनाओं के साथ बर्बाद सममित दीवारों के साथ छोड़ा गया है।
☯ हिंदू मंदिरों से जैन मंदिरों को मस्जिदों तक, इस जगह के विभिन्न शासकों के पवित्र स्थानों का प्रतिनिधित्व करते हुए, आप उन सभी को जालोर किले परिसर के अंदर पाएंगे।

देश के सबसे अजेय किलों में से एक के रूप में माने जाने वाला जलोलर किले के बारे में एक प्रसिद्ध कथानक है- "आकाश फट जाए , पृथ्वी उल्टा हो जाए , लोहे के कवच को टुकड़ों हो जाए, शरीर को अकेले लड़ना पड़े , लेकिन जालोर समर्पण न करें "। पारंपरिक हिंदू वास्तुकला शैली में निर्मित, जलोलर किला एक खड़ी पहाड़ी पर 1200 मीटर की ऊंचाई में स्थित है। जालोर का किला इतनी ऊँचा था कि पूरे शहर के मनोरम दृश्य के लिए उपयुक्त था।
किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वा पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२० फुट तक हो जाती है।

इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं।
यहां से रास्ते के दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से देखने पर भयावह लगती है।
जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था। पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था।
वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है।
जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं। दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है।
जालौर दुर्ग का इतिहास

१२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन किया।
गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे, उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा है।
जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा।

तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ।
कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है।
महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया।
१८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे।
इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है।
जालोर फोर्ट के दिलचस्प तथ्य
☯ जब अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर किला पर हमला किया, तो कई राजपूत सैनिक मारे गए, उनकी पत्नियां जलती हुई आग के तालाब में कूदकर खुद को मौत के घाट उतार दिया , ताकि सेना का विरोध करने से उनके सम्मान को बचाया जा सके। यह राजपूत महिलाओं के बीच उच्चतम त्याग की एक लोकप्रिय परंपरा थी और “जौहर” के रूप में जाना जाता था।
☯ किले का मुख्य आकर्षण यहां उजाड़ हुआ आवासीय पैलेस है, जो अब चारों ओर विशाल रॉक संरचनाओं के साथ बर्बाद सममित दीवारों के साथ छोड़ा गया है।
☯ हिंदू मंदिरों से जैन मंदिरों को मस्जिदों तक, इस जगह के विभिन्न शासकों के पवित्र स्थानों का प्रतिनिधित्व करते हुए, आप उन सभी को जालोर किले परिसर के अंदर पाएंगे।