ण्ड़ोर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था। घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार ब्राह्मण हरिचन्द्र के पुत्रों ने मण्डोर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई।



मण्ड़ोर दुर्ग का इतिहास

मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया।

यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु १३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर पुन: अधिकार कर लिया।

इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।

मंडोर दुर्ग वास्तुकला

मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है।

पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे।


मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की कमी का सामना नही करना पड़े।

इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम परमार शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे।