चित्तोड़ के जौहर और शाके
पहला जौहर और शाका
दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के रूप और सोंदर्य के बारे में सुन उसे पाने की चाहत में विक्रमी संवत १३५९ में चितोड़ पर चढाई की। चित्तोड़ के महाराणा रतन सिंह को जब दिल्ली से खिलजी की सेना के कूच होने की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने भाई-बेटों को दुर्ग की रक्षार्थ इकट्ठा किया समस्त मेवाड़ और आप-पास के क्षत्रों में रतन सिंह ने खिलजी का मुकाबला करने की तैयारी की।
किले की सुद्रढ़ता और राजपूत सैनिको की वीरता और तत्परता से छह माह तक अलाउद्दीन अपने उदेश्य में सफल नही हो सका और उसके हजारों सैनिक मरे गए अतः उसने युक्ति सोच महाराणा रतन सिंह के पास संधि प्रस्ताव भेजा कि मै मित्रता का इच्छुक हूँ ,महारानी पद्मिनी के रूप की बड़ी तारीफ सुनी है, सो मै तो केवल उनके दर्शन करना चाहता हूँ। कुछ गिने चुने सिपाहियों के साथ एक मित्र के नाते चित्तोड़ के दुर्ग में आना चाहता हूँ इससे मेरी बात भी रह जायेगी और आपकी भी।
धूर्त खिलजी मीठी-मीठी प्रेम भरी बाते करता- करता महारणा को अपने पड़ाव तक ले आया और मौका देख बंदी बना लिया। राजपूत सैनिको ने महाराणा रतन सिंह को छुड़ाने के लिए बड़े प्रयत्न किए लेकिन वे असफल रहे और अलाउद्दीन ने बार-बार यही कहलवाया कि रानी पद्मिनी हमारे पड़ाव में आएगी तभी हम महाराणा रतन सिंह को मुक्त करेंगे अन्यथा नही।
अतः रानी पद्मिनी के काका गोरा ने एक युक्ति सोच बादशाह खिलजी को कहलाया कि रानी पद्मिनी इसी शर्त पर आपके पड़ाव में आ सकती है जब पहले उसे महाराणा से मिलने दिया जाए और उसके साथ उसकी दासियों का पुरा काफिला भी आने दिया जाए। जिसे खिलजी ने स्वीकार कर लिया। योजनानुसार रानी पद्मिनी की पालकी में उसकी जगह स्वयम गोरा बैठा और दासियों की जगह पालकियों में सशत्र राजपूत सैनिक बैठे।
उन पालकियों को उठाने वाले कहारों की जगह भी वस्त्रों में शस्त्र छुपाये राजपूत योधा ही थे। बादशाह के आदेशानुसार पालकियों को राणा रतन सिंह के शिविर तक बेरोकटोक जाने दिया गया और पालकियां सीधी रतन सिंह के तम्बू के पास पहुँच गई वहां इसी हलचल के बीच राणा रतन सिंह को अश्वारूढ़ कर किले की और रवाना कर दिया गया और बनावटी कहार और पालकियों में बैठे योद्धा पालकियां फैंक खिलजी की सेना पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़े अचानक अप्रत्याशित हमले से खिलजी की सेना में भगदड़ मच गई और गोरा अपने प्रमुख साथियों सहित किले में वापस आने में सफल रहा महाराणा रतन सिंह भी किले में पहुच गए।
छह माह के लगातार घेरे के चलते दुर्ग में खाद्य सामग्री की भी कमी हो गई थी इससे घिरे हुए राजपूत तंग आ चुके थे अतः जौहर और शाका करने का निर्णय लिया गया। गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया।
महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ।
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ।।
इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद १८ अप्रेल १३०३ को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके। उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे।
दूसरा जौहर और शाका
गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने जनवरी १५३५ में चित्तोड़ पहुंचकर दुर्ग को घेर लिया इससे पहले हमले की ख़बर सुनकर चित्तोड़ की राजमाता कर्मवती ने अपने सभी राजपूत सामंतों को संदेश भिजवा दिया कि- यह तुम्हारी मातृभूमि है इसे मै तुम्हे सौपती हूँ चाहो तो इसे रखो या दुश्मन को सौप दो। इस संदेश से पुरे मेवाड़ में सनसनी फ़ैल गई और सभी राजपूत सामंत मेवाड़ की रक्षार्थ चित्तोड़ दुर्ग में जमा हो गए।
रावत बाघ सिंह ने किले की रक्षात्मक मोर्चेबंदी करते हुए स्वयम प्रथम द्वार पर पाडल पोल पर युद्ध के लिए तैनात हुए। मार्च १५३५ में बहादुरशाह के पुर्तगाली तोपचियों ने अंधाधुन गोले दाग कर किले की दीवारों को काफी नुकसान पहुचाया तथा किले निचे सुरंग बना उसमे विस्फोट कर किले की दीवारे उड़ा दी राजपूत सैनिक अपने शोर्यपूर्ण युद्ध के बावजूद तोपखाने के आगे टिक नही पाए और ऐसी स्थिति में जौहर और शाका का निर्णय लिया गया।
राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में १३००० वीरांगनाओं ने विजय स्तम्भ के सामने लकड़ी के अभाव बारूद के ढेर पर बैठ कर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया। जौहर व्रत संपन्न होने के बाद उसकी प्रज्वलित लपटों की छाया में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर शाका किया किले के द्वार खोल वे शत्रु सेना पर टूट पड़े इस युद्ध में इतना भयंकर रक्तपात हुआ की रक्त नाला बरसाती नाले की भांति बहने लगा।
योद्धाओं की लाशों को पाटकर बहादुर शाह किले में पहुँचा और भयंकर मारकाट और लूटपाट मचाई। चित्तोड़ विजय के बाद बहादुर शाह हुमायूँ से लड़ने रवाना हुआ और मंदसोर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया जिसकी ख़बर मिलते ही ७००० राजपूत सैनिकों ने आक्रमण कर पुनः चित्तोड़ दुर्ग पर कब्जा कर विक्रमादित्य को पुनः गद्दी पर बैठा दिया।
तीसरा जौहर और शाका
अक्टूबर १५६७ में अकबर अपनी विशाल सेना के साथ चित्तोड़ दुर्ग पर हमला किया। शक्ति सिंह द्वारा चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह को हमले की पूर्व सुचना मिल चुकी थी सो युद्ध परिषद् व अन्य सामन्तो की सलाह के बाद महाराणा उदय सिंह ने किले की रक्षा का भार वीर शिरोमणि जयमल मेडतिया को सौप ख़ुद परिवार सहित चित्तोड़ दुर्ग छोड़ कर दुर्गम पहाडों में चले गए।
कई महीनों के युद्ध के बाद किले में गोला बारूद और अन्न की कमी हो चली थी और एक रात किले की दीवार का मरम्मत का कार्य देखते वक्त राव जयमल अकबर की बन्दूक से निकली गोली का शिकार हो घायल हो गए और पैर में गोली लगने के कारण उनका चलना फिरना दूभर हो गया अतः दुर्ग में भावी अनिष्ट की आशंका देख जौहर व शाका का निश्चय किया गया दुर्ग में चार स्थानों पर जौहर हुआ।
जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद सभी राजपूत योद्धाओं ने गो मुख में स्नान कर मंदिरों में दर्शन कर केसरिया बाना धारण कर किले के द्वार खोल दिए और चल पड़े रणचंडी का आव्हान करने। भयंकर युद्ध और मारकाट के बाद १५ फरवरी १५६८ को दोपहर बाद बादशाह अकबर इन सभी वीरों के वीर गति प्राप्त होने के बाद किले पर कब्जा कर पाया।