भारत का इतिहास राजाओं, महाराजाओं और उनके किलों से बहुत मशहूर है। यहां बहुत ऐसे किले मौजूद है जिनका इतिहास बहुत रोचक और डरावना है। इन में से एक किला है मेहरानगढ़ किला ( Mehrangarh Fort )। यह किला जोधपुर के सबसे बड़े किलों में से एक है। सबसे ज़्यादा लोग इस किले को देखने आते हैं। यह किला डेढ़ सौ मीटर ऊंची एक पहाड़ी पर स्थित है। यह किला दिल्ली के कुतुब मीनार से 73 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद है।

इतिहास के पन्नों पर राज्य के दूसरे बड़े शहर जोधपुर व इसके किले की स्थापना की कहानी लिखी है, जो बहुत ही अद्भुत और रोचक है। तत्कालीन महाराजा राव जोधा के पिता राव रणमल की मृत्यु के बाद जोधा को अपने राज्य से हाथ धोने पड़े। राव रणमल जब जीवित थे तब तक मेवाड़ का शासन उनकी सहमति से ही चला करता था। इससे मेवाड़ के कुछ प्रशासनिक सरदार नाखुश थे।
नाखुश सरदारों ने मेवाड़ के राजा महाराणा कुम्भा व उनकी माता सौभाग्य देवी को राव रणमल के खिलाफ भड़का दिया और विक्रम संवत 1495 में षड्यंत्र रच कर गहरी नींद में सो रहे राव की हत्या कर दी।
मेवाड़ की सेना ने रावत चूड़ा लाखावत के नेतृत्व में मण्डोर पर आक्रमण कर मारवाड़ रियासत पर कब्जा कर लिया। पिता की मौत के बाद राव जोधा से उनका राज्य छिन गया। लेकिन सच्चे वीर राजपूत राव जोधा को ये याद रहा कि धरती वीरों की वधु होती है और युद्ध क्षत्रिय का व्यवसाय।
वसुन्धरा वीरा री वधु, वीर तीको ही बिन्द।
रण खेती राजपूत री, वीर न भूले बाल।।
वीर राव जोधा साहसी और पराक्रमी थे। मारवाड़ राज्य फिर से हासिल करने के लिए वे पंद्रह सालों तक मेवाड़ की सेना से लड़ते रहे। लगातार संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने अपने भाईयों के अटूट सहयोग से मण्डोर, कोसना व चौकड़ी पर विजय पताका लहराई और मारवाड़ में राठौड़ों का राज्य विक्रम संवत 1510 में फिर से स्थापित किया।
मंडोर के किले को शत्रुओं से असुरक्षित जानकर राव जोधा ने मण्डोर से 6 मील दूर दक्षिण में चिडि़यानाथ की टूंक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459 से एक नया दुर्ग बनवाना शुरू किया। इसके बाद से 500 वर्ष तक ये किला मारवाड़ की राजनीतिक व सामरिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा।
इस दुर्ग को राव जोधा ने 13 मई 1459 से बनवाना अरंभ किया। वो इसे मसूरिया का पहाड़ी पर बनवाना चाहते थे। लेकिन वहां पानी की कमी थी। इसलिए उन्होंने पंचेटिया पहाड़ी को दुर्ग निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त माना।
राजा जब दुर्ग निर्माण के लिए ये पहाड़ी देखने पहुंचा तो यहां उन्होंने बकरी को बाघ से लड़ते देखा। इस पहाड़ी पर उन दिनों शेरों की कई गुफाएं थीं। ये दृश्य देखकर राव जोधा ने इसी पहाड़ी पर दुर्ग निर्माण के लिए उपयुक्त माना। इस पहाड़ी पर एक झरना बहता था, जिसके पास चिडि़यानाथ नामक योगी रहता था।
योगी को बताया गया कि राजा यहां दुर्ग बनाना चाहते हैं, कुटिया हटाएं। वो राजी नहीं हुआ। जोधा को इससे उपयुक्त स्थान ना मिला तो उन्होंने यहीं निर्माण आरंभ करवा दिया। योगी चिडि़यानाथ गुस्से में कुटिया उजाड़ चला गया और धूणी के अंगारे झोली में भर लिए। जाते-जाते राव जोधा को चिडि़यानाथ ने शाप दिया कि जिस पानी के कारण मेरी तपस्या भंग हुई वो पानी तुझे कभी नसीब ना हो।
माना जाता है कि तब से जोधपुर में पानी की तंगी ही रही। ये तंगी इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद ही समाप्त हो सकी। जब दुर्ग बना तो राव जोधा ने साधु की कुटिया वाले स्थान पर एक कुण्ड और छोटा शिव मंदिर बनवा दिया।
100 किलोमीटर दूर से देखा जा सकता है किला
इस दुर्ग के चारों 12 से 17 फुट चौड़ी और 20 से 150 फुट ऊंची दीवार है। किले की चौड़ाई 750 फुट और लम्बाई 1500 फुट रखी गई है। चार सौ फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित ये विशाल दुर्ग कई किलोमीटर दूर से दिखाई देता है। बरसात के बाद आकाश साफ होने पर इस दुर्ग को 100 किलोमीटर दूर स्थित जालोर के दुर्ग से भी देखा जा सकता है।
कुण्डली के अनुसार इसका नाम चिंतामणी है लेकिन ये मिहिरगढ़ के नाम से जाना जाता था। मिहिर का अर्थ सूर्य होता है। मिहिरगढ़ बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा। इसकी आकृति मयूर पंख के समान है इसलिए इसे मयूरध्वज दुर्ग भी कहते हैं।
किले में कई पोल व द्वार हैं। लोहापोल, जयपोल और फतहपोल के अलावा गोपाल पोल, भैंरू पोल, अमृत पोल, ध्रुवपोल, सूरजपोल आदि छह द्वार किले तक पहुंचने के लिए बनवाए गए हैं। इनका क्रम इस तरह संकड़ा व घुमावदार निश्चित किया गया है जिससे दुश्मन आसानी से दुर्ग में प्रवेश ना कर सकें और उस पर छल से गर्म तेल, तीर व गोलियां चलाई जा सकें।
दुर्ग के विभिन्न महलों के प्लास्टर में कौड़ी का पाउडर प्रयुक्त किया गया है, जो सदियां बीत जाने पर भी चमकदार व नवीन दिखाई देता है। श्वेत चिकनी दीवारों, छतों व आंगनों के कारण सभी प्रासाद गर्मियों में ठंडे रहते हैं।
कुतुबमीनार से ऊंचा है किला
जोधपुर का मेहरानगढ़ किला कुतुबमीनार से भी ऊंचा है। हैरान हो गए ना?... लेकिन ये जितना चौंकाने वाला है उतना ही सच भी है। राजस्थान का दूसरा बड़ा शहर और पश्चिमी राजस्थान का सबसे बड़ा शहर जोधपुर इस किले पर अभिमान करता है और हो भी क्यों ना... इस किले ने पूरे विश्व में अपनी शान का परचम लहराया है। देशी-विदेशी पर्यटक खास तौर जोधपुर के एतिहासिक स्मारक ही देखने आते हैं।
रजवाड़ों की शानो-शौकत और गौरवशाली इतिहास को समेटे ये किला जोधपुरवासियों को गर्व की अनुभूति कराता है। वर्तमान में किले से फ्लाइंग फॉक्स भी शुरू हो गया है। जिसमें पर्यटक एक छोर से दूसरे छोर जा सकते हें और ऊंचाई से शहर का भव्य नजारा देख सकते हैं। 125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित ये किला कुतुबमीनार से भी ऊंचा है। कुतुबमीनार की ऊंचाई 73 मीटर है।
इस किले के अंदर बहुत सारे सजे हुए महल भी है, जिनमें मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खान और दौलत खान आदि महल है। साथ ही किले के म्यूजियम में पालकियों , पोशाकों , संगीत वाद्य, शाही पालनों और फर्नीचर को रखा हुआ है। किले की दीवारों पर रखी तोपे इसकी सुन्दरता को चार चाँद लगाती है।
किले के पोल व द्वार
☯ जय पोल (विजय का द्वार), इसका निर्माण महाराजा मान सिंह ने 1806 में जयपुर और बीकानेर पर युद्ध में मिली जीत की ख़ुशी में किया था।
☯ फ़तेह पोल , इसका निर्माण 1707 में मुगलों पर मिली जीत की ख़ुशी में किया गया।
☯ डेढ़ कंग्र पोल, जिसे आज भी तोपों से की जाने वाली बमबारी का डर लगा रहता है।
☯ लोह पोल, यह किले का अंतिम द्वार है जो किले के परिसर के मुख्य भाग में बना हुआ है। इसके बायीं तरफ ही रानियो के हाँथो के निशान है, जिन्होंने 1843 में अपनी पति, महाराजा मान सिंह के अंतिम संस्कार में खुद को कुर्बान कर दिया था।
इस किले के भीतर बहुत से बेहतरीन चित्रित और सजे हुए महल है। जिनमे मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना और दौलत खाने का समावेश है। साथ ही किले के म्यूजियम में पालकियो, पोशाको, संगीत वाद्य, शाही पालनो और फर्नीचर को जमा किया हुआ है। किले की दीवारों पर तोपे भी रखी गयी है, जिससे इसकी सुन्दरता को चार चाँद भी लग जाते है।

मेहरानगढ़ किले का इतिहास
इतिहास के पन्नों पर राज्य के दूसरे बड़े शहर जोधपुर व इसके किले की स्थापना की कहानी लिखी है, जो बहुत ही अद्भुत और रोचक है। तत्कालीन महाराजा राव जोधा के पिता राव रणमल की मृत्यु के बाद जोधा को अपने राज्य से हाथ धोने पड़े। राव रणमल जब जीवित थे तब तक मेवाड़ का शासन उनकी सहमति से ही चला करता था। इससे मेवाड़ के कुछ प्रशासनिक सरदार नाखुश थे।

नाखुश सरदारों ने मेवाड़ के राजा महाराणा कुम्भा व उनकी माता सौभाग्य देवी को राव रणमल के खिलाफ भड़का दिया और विक्रम संवत 1495 में षड्यंत्र रच कर गहरी नींद में सो रहे राव की हत्या कर दी।
मेवाड़ की सेना ने रावत चूड़ा लाखावत के नेतृत्व में मण्डोर पर आक्रमण कर मारवाड़ रियासत पर कब्जा कर लिया। पिता की मौत के बाद राव जोधा से उनका राज्य छिन गया। लेकिन सच्चे वीर राजपूत राव जोधा को ये याद रहा कि धरती वीरों की वधु होती है और युद्ध क्षत्रिय का व्यवसाय।
वसुन्धरा वीरा री वधु, वीर तीको ही बिन्द।
रण खेती राजपूत री, वीर न भूले बाल।।
वीर राव जोधा साहसी और पराक्रमी थे। मारवाड़ राज्य फिर से हासिल करने के लिए वे पंद्रह सालों तक मेवाड़ की सेना से लड़ते रहे। लगातार संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने अपने भाईयों के अटूट सहयोग से मण्डोर, कोसना व चौकड़ी पर विजय पताका लहराई और मारवाड़ में राठौड़ों का राज्य विक्रम संवत 1510 में फिर से स्थापित किया।
मंडोर के किले को शत्रुओं से असुरक्षित जानकर राव जोधा ने मण्डोर से 6 मील दूर दक्षिण में चिडि़यानाथ की टूंक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459 से एक नया दुर्ग बनवाना शुरू किया। इसके बाद से 500 वर्ष तक ये किला मारवाड़ की राजनीतिक व सामरिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा।
मेहरानगढ़ किले के निर्माण से जुडी रोचक कहानी
इस दुर्ग को राव जोधा ने 13 मई 1459 से बनवाना अरंभ किया। वो इसे मसूरिया का पहाड़ी पर बनवाना चाहते थे। लेकिन वहां पानी की कमी थी। इसलिए उन्होंने पंचेटिया पहाड़ी को दुर्ग निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त माना।

राजा जब दुर्ग निर्माण के लिए ये पहाड़ी देखने पहुंचा तो यहां उन्होंने बकरी को बाघ से लड़ते देखा। इस पहाड़ी पर उन दिनों शेरों की कई गुफाएं थीं। ये दृश्य देखकर राव जोधा ने इसी पहाड़ी पर दुर्ग निर्माण के लिए उपयुक्त माना। इस पहाड़ी पर एक झरना बहता था, जिसके पास चिडि़यानाथ नामक योगी रहता था।
योगी को बताया गया कि राजा यहां दुर्ग बनाना चाहते हैं, कुटिया हटाएं। वो राजी नहीं हुआ। जोधा को इससे उपयुक्त स्थान ना मिला तो उन्होंने यहीं निर्माण आरंभ करवा दिया। योगी चिडि़यानाथ गुस्से में कुटिया उजाड़ चला गया और धूणी के अंगारे झोली में भर लिए। जाते-जाते राव जोधा को चिडि़यानाथ ने शाप दिया कि जिस पानी के कारण मेरी तपस्या भंग हुई वो पानी तुझे कभी नसीब ना हो।
माना जाता है कि तब से जोधपुर में पानी की तंगी ही रही। ये तंगी इंदिरा गांधी नहर के आने के बाद ही समाप्त हो सकी। जब दुर्ग बना तो राव जोधा ने साधु की कुटिया वाले स्थान पर एक कुण्ड और छोटा शिव मंदिर बनवा दिया।
100 किलोमीटर दूर से देखा जा सकता है किला
इस दुर्ग के चारों 12 से 17 फुट चौड़ी और 20 से 150 फुट ऊंची दीवार है। किले की चौड़ाई 750 फुट और लम्बाई 1500 फुट रखी गई है। चार सौ फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित ये विशाल दुर्ग कई किलोमीटर दूर से दिखाई देता है। बरसात के बाद आकाश साफ होने पर इस दुर्ग को 100 किलोमीटर दूर स्थित जालोर के दुर्ग से भी देखा जा सकता है।
कुण्डली के अनुसार इसका नाम चिंतामणी है लेकिन ये मिहिरगढ़ के नाम से जाना जाता था। मिहिर का अर्थ सूर्य होता है। मिहिरगढ़ बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा। इसकी आकृति मयूर पंख के समान है इसलिए इसे मयूरध्वज दुर्ग भी कहते हैं।
किले में कई पोल व द्वार हैं। लोहापोल, जयपोल और फतहपोल के अलावा गोपाल पोल, भैंरू पोल, अमृत पोल, ध्रुवपोल, सूरजपोल आदि छह द्वार किले तक पहुंचने के लिए बनवाए गए हैं। इनका क्रम इस तरह संकड़ा व घुमावदार निश्चित किया गया है जिससे दुश्मन आसानी से दुर्ग में प्रवेश ना कर सकें और उस पर छल से गर्म तेल, तीर व गोलियां चलाई जा सकें।
दुर्ग के विभिन्न महलों के प्लास्टर में कौड़ी का पाउडर प्रयुक्त किया गया है, जो सदियां बीत जाने पर भी चमकदार व नवीन दिखाई देता है। श्वेत चिकनी दीवारों, छतों व आंगनों के कारण सभी प्रासाद गर्मियों में ठंडे रहते हैं।
कुतुबमीनार से ऊंचा है किला
जोधपुर का मेहरानगढ़ किला कुतुबमीनार से भी ऊंचा है। हैरान हो गए ना?... लेकिन ये जितना चौंकाने वाला है उतना ही सच भी है। राजस्थान का दूसरा बड़ा शहर और पश्चिमी राजस्थान का सबसे बड़ा शहर जोधपुर इस किले पर अभिमान करता है और हो भी क्यों ना... इस किले ने पूरे विश्व में अपनी शान का परचम लहराया है। देशी-विदेशी पर्यटक खास तौर जोधपुर के एतिहासिक स्मारक ही देखने आते हैं।
रजवाड़ों की शानो-शौकत और गौरवशाली इतिहास को समेटे ये किला जोधपुरवासियों को गर्व की अनुभूति कराता है। वर्तमान में किले से फ्लाइंग फॉक्स भी शुरू हो गया है। जिसमें पर्यटक एक छोर से दूसरे छोर जा सकते हें और ऊंचाई से शहर का भव्य नजारा देख सकते हैं। 125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित ये किला कुतुबमीनार से भी ऊंचा है। कुतुबमीनार की ऊंचाई 73 मीटर है।

इस किले के अंदर बहुत सारे सजे हुए महल भी है, जिनमें मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खान और दौलत खान आदि महल है। साथ ही किले के म्यूजियम में पालकियों , पोशाकों , संगीत वाद्य, शाही पालनों और फर्नीचर को रखा हुआ है। किले की दीवारों पर रखी तोपे इसकी सुन्दरता को चार चाँद लगाती है।
किले के पोल व द्वार
☯ जय पोल (विजय का द्वार), इसका निर्माण महाराजा मान सिंह ने 1806 में जयपुर और बीकानेर पर युद्ध में मिली जीत की ख़ुशी में किया था।
☯ फ़तेह पोल , इसका निर्माण 1707 में मुगलों पर मिली जीत की ख़ुशी में किया गया।
☯ डेढ़ कंग्र पोल, जिसे आज भी तोपों से की जाने वाली बमबारी का डर लगा रहता है।
☯ लोह पोल, यह किले का अंतिम द्वार है जो किले के परिसर के मुख्य भाग में बना हुआ है। इसके बायीं तरफ ही रानियो के हाँथो के निशान है, जिन्होंने 1843 में अपनी पति, महाराजा मान सिंह के अंतिम संस्कार में खुद को कुर्बान कर दिया था।
इस किले के भीतर बहुत से बेहतरीन चित्रित और सजे हुए महल है। जिनमे मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना और दौलत खाने का समावेश है। साथ ही किले के म्यूजियम में पालकियो, पोशाको, संगीत वाद्य, शाही पालनो और फर्नीचर को जमा किया हुआ है। किले की दीवारों पर तोपे भी रखी गयी है, जिससे इसकी सुन्दरता को चार चाँद भी लग जाते है।