हाराणा कुम्भा राजपूताने का ऐसा प्रतापी शासक हुआ है, जिसके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है। महाराणा कुम्भा का जन्म 1403 ई. में हुआ था। कुम्भा चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे। उसकी माता परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। अपने पिता चित्तौड़ के महाराणा मोकल की हत्या के बाद कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन हुआ, तब उसकी उम्र अत्यंत कम थी।


राणा कुम्भा स्थापत्य का बहुत अधिक शौकीन था। मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िलों का निर्माण उसने करवाया था। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी इमारतें तथा मन्दिरों आदि का निर्माण भी उसने करवाया। 1473 ई. में राणा कुम्भा के पुत्र उदयसिंह ने उसकी हत्या कर दी।

राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक ‘कीर्ति स्तम्भ’ की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्यकालीन भारत के शासकों में राणा कुम्भा कि गिनती एक महान् शासक के रूप में होती थी।


महाराणा कुम्भा के विजय अभियान

बूँदी विजय अभियान -

कुम्भा ने 1436 ई. में हारे हुए स्थानों को पुनः प्राप्त करने के लिए बूँदी के राव बैरीसाल के विरुद्ध सैनिक अभियान प्रारंभ किया। जहाजपुर के समीप दोनों ही सेनाओं में गंभीर युद्ध हुआ, जिसमें बूँदी की हार हुई। बूँदी ने मेवाड़ की अधीनता स्वीकार कर ली। मांडलगढ़, बिजौलिया, जहाजपुर एवं पूर्वी-पठारी क्षेत्र मेवाड़-राज्य में मिला लिए।

गागरोन विजय अभियान -

इसी समय कुम्भा ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थिति गागरोन-दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया।


सिरोही विजय अभियान -

सिरोही के शासक शेषमल ने कुम्भा के पिता मोकल की मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न अव्यवस्थाओं का लाभ उठाते हुए मेवाड़ राज्य की सीमा के अनेक गाँवों पर अधिकार कर लिया था। तब कुम्भा ने डोडिया नरसिंह के सेनापतित्व के रूप में वहाँ सेना भेजी। नरसिंह ने अचानक आक्रमण कर (1437 ई.) आबू तथा सिरोही राज्य के कई हिस्सों को जीत लिया। शेषमल ने आबू को पुनः जीतने के प्रयास में गुजरात के सुल्तान से भी सहायता ली किन्तु असफलता ही हाथ लगी। कुम्भा की आबू विजय का बड़ा महत्व है। गोडवाड़ पहले से ही मेवाड़ के अधीन था, अतः इसकी रक्षा के लिए बसंतगढ़ और आबू को मेवाड़ में मिलाना जरूरी था।

वागड़ पर विजय-

कुम्भा ने डूंगरपुर पर भी आक्रमण किया और बिना कठिनाई के सफलता मिली। इस तरह उसने वागड़-प्रदेश को जीतकर जावर मेवाड़ राज्य में मिला लिया गया।

मेरों का दमन -

मेरों के विद्रोह को दबाने में भी वह सफल रहा। बदनोर के आस-पास ही मेरों की बड़ी बस्ती थी। ये लोग सदैव विद्रोह करते रहते थे। कुम्भा ने इनके विद्रोह का दमन कर विद्रोही नेताओं को कड़ा दंड दिया।

मेवाड़-मालवा प्रथम संघर्ष - सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.) -

विद्रोही महपा जिसको मालवा के सुल्तान ने शरण दे रखी थी, कुम्भा ने उसे लौटाने की माँग की, किन्तु सुल्तान ने मना कर दिया। तब 1437 ई. में कुम्भा ने एक विशाल सेना के साथ मालवा पर आक्रमण कर दिया। वह मंदसौर, जावरा आदि स्थानों को जीतता हुआ सारंगपुर पहुँचा जहाँ युद्ध में सुल्तान महमूद खलजी की हार हुई। कुम्भा ने महमूद खलजी को बंदी बनाया और उदारता का परिचय देते हुए उसे मुक्त भी कर दिया। निःसंदेह महाराणा की यह नीति उदारता स्वाभिमान व दूरदर्शिता का परिचायक है।

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महाराणा कुम्भा सारंगपुर से गागरौन मंदसौर आदि स्थानों पर अधिकार करता हुआ मेवाड़ लौट आया। इस युद्ध से मेवाड़ की गिनती एक शक्तिशाली राज्य के रूप में की जाने लगी परंतु महमूद खलजी उसका स्थायी रूप से शत्रु हो गया और दोनों राज्यों के बीच में एक संघर्ष की परंपरा चली। हरबिलास शारदा का तो यह मानना है कि सारंगपुर में हुए अपमान का बदला लेने के लिए उसने मेवाड़ पर पांच बार आक्रमण किए।

1. कुम्भलगढ़ एवं चितौड़ पर आक्रमण -

महमूद का इस श्रृंखला में प्रथम आक्रमण 1442-43 ई. में हुआ है । वास्तव में सुल्तान ने यह समय काफी उपयुक्त चुना क्योंकि इस समय महाराणा बूँदी की ओर व्यस्त था। कुम्भा का विद्रोही भाई खेमकरण मालवा के सुल्तान की शरण में पहले ही जा चुका था, जिससे सुल्तान को पर्याप्त सहायता मिली। तभी गुजरात के शासक अहमदशाह की भी मृत्यु हो गई थी। उसका उत्तराधिकारी महमूदशाह काफी निर्बल था। अतएव गुजरात की ओर से मालवा को आक्रमण का डर नहीं रहा। महमूद खलजी ने सारंगपुर की हार का बदला लेने के लिए सबसे पहले 1442 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया।

मेवाड़ के सेनापति दीपसिंह को मार कर बाणमाता के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट किया। इतने पर भी जब यह दुर्ग जीता नहीं जा सका तो शत्रु सेना ने चित्तौड़ को जीतना चाहा। इस बात को सुनकर महाराणा बूँदी से चित्तौड़ वापस लौट आए जिससे महमूद की चित्तौड़-विजय की यह योजना सफल नहीं हो सकी और महाराणा ने उसे पराजित कर मांडू भगा दिया।


2 . गागरौन-विजय (1443-44 ई.) -

मालवा के सुल्तान ने कुम्भा की शक्ति को तोड़ना कठिन समझ कर मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय सीमावर्ती दुर्गों पर अधिकार करने की चेष्टा की। अत: उसने नवम्बर 1443 ई. में गागरौन पर आक्रमण किया। गागरौन उस समय खींची चौहानों के अधिकार में था। मालवा और हाडौती के बीच होने से मेवाड़ और मालवा के लिए इस दुर्ग का बड़ा महत्त्व  था। अतएव खलजी ने आगे बढ़ते हुए 1444 ई. में इस दुर्ग को घेर लिया और सात दिन के संघर्ष के बाद सेनापति दाहिर की मृत्यु हो जाने से राजपूतों का मनोबल गिर गया और गागरौन पर खलजी का अधिकार हो गया। डॉ यू.एन.डे का मानना है कि इसका मालवा के हाथ में चला जाना मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा था।

3 . मांडलगढ़ पर आक्रमण -

1444 ई. में महमूद खलजी ने गागरौन पर अधिकार कर लिया । गागरौन की सफलता ने उसको माँडलगढ पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। कुम्भा ने इसकी रक्षा का पूर्ण प्रबंध कर रखा था और तीन दिन के कड़े संघर्ष के बाद खलजी को करारी हार का सामना करना पड़ा।

4 . माँडलगढ़ का दूसरा घेरा -

11 अक्टूबर 1446 ई. को महमूद खलजी माँडलगढ़ अभियान के लिए रवाना हुआ । किन्तु इस बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली और अगले 7-6 वर्षों तक वह मेवाड़ पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका।

5 . अजमेर-माँडलगढ अभियान -

पहले की हार का बदला लेने के लिए अगले ही वर्ष 1455 ई. में सुल्तान ने कुम्भा के विरुद्ध अभियान प्रारंभ किया। मंदसौर पहुँचने पर उसने अपने पुत्र गयासुद्दीन को रणथंभौर की ओर भेजा और स्वयं सुल्तान ने जाइन का दुर्ग जीत लिया। इस विजय के बाद सुल्तान अजमेर की ओर रवाना हुआ।

अजमेर तब कुम्भा के पास में था और उसके प्रतिनिधि के रूप में राजा गजधरसिंह वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था को देख रहा था। सुल्तान को इस बार भी पराजित होकर मांडू लौटना पड़ा था। 1457 ई. में वह माँडलगढ लेने के लिए फिर इधर आया। अक्टूबर 1457 ई. में उसका माँडलगढ़ पर अधिकार हो गया। कारण कि तब कुम्भा गुजरात से युद्ध करने में व्यस्त था किन्तु शीघ्र ही उसने माँडलगढ को पुनः हस्तगत कर लिया।


महाराणा कुम्भा दूरदर्शिता एवं युद्ध कौशल

कुम्भा ने अपनी सैन्य शक्ति, दूरदर्शिता एवं युद्ध कौशल द्वारा न केवल संपूर्ण राजपूताने पर अपना अधिकार स्थापित नहीं किया अपितु मेवाड़ की राज्य सीमा का विस्तार कर अपनी कीर्ति में चार चाँद लगाए, जिसकी गवाही आज भी चित्तौड़ की धरती पर खड़ा कीर्ति-स्तम्भ देता है, जिसके उन्नत शिखरों से कुम्भा के महान व्यक्तित्व की रश्मियाँ अनवरत प्रस्फुटित हो रही है।

कुम्भा ने अपने कुशल नेतृत्व, रणचातुर्य एवं कूटनीति से मेवाड़ में आंतरिक शांति व समृद्धि की स्थापना ही की, साथ ही मेवाड़ की बाह्य शत्रुओं से रक्षा भी की। उसने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति एवं दूरदर्शिता से मेवाड को महाराज्य बना दिया था। एक महान शासक के रूप में कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विजय-नीति तथा कूटनीति है। उसने अपने काल में कई दुर्गों का निर्माण करवा कर मेवाड़ को वैज्ञानिक एवं सुरक्षित सीमायें प्रदान कर आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं समृद्धि की स्थापना की। कुम्भा के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात विजय नीति तथा कूटनीति है। धार्मिक क्षेत्र में भी वह समय से आगे था।

महाराणा कुंभा का देहांत-

ऐसे वीर, प्रतापी, विद्वान महाराणा का अंत बहुत दु:खद हुआ। 1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदयसिंह अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उसके बाद उसका छोटा भाई राजमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा।

36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या 'राणा साँगा' (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में जहाँगीर ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया।