हुत सी प्रेम कहानियों के बारे में अपने सुना होगा लेकिन आज हम आपको राजस्थान के इतिहास की उस घटना की बारे में बताने जा रहे है जब एक रानी ने विवाह के महज़ सात दिन बाद अपना सिर ख़ुद अपने हाथो से काटकर पति को निशानी के तौर पे रणभूमि में भिजवा दिया था ताकी उसका पती उसके रुप-यौवन के ख्यालों में खोकर कही अपना कर्त्वय पूरी निष्ठा से ना कर पाए।

हाड़ी रानी

न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आल्ता, जब एक रानी ने अपनी शादी के हफ्ते भर बाद अपना सिर खुद अपने हाथों से काट कर पति को निशानी के तौर पर रणभूमि में भिजवा दिया था। यह सोच कर कि उसका पति उसके ख्यालों में खो कर कहीं अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाये।

यह कहानी है हाड़ा सरदार और उनकी रानी की़   हाड़ी रानी बूंदी के हाड़ा शासक की बेटी थीं। उनकी शादी उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के रावत रतन सिंह चुण्डावत से हुई थी़ शादी को एक हफ्ता ही बीता था कि एक सुबह रावत रतन सिंह को मेवाड़ के महाराणा राज सिंह (1653-81) का औरंगजेब के खिलाफ मेवाड़ की रक्षा के लिए युद्ध का संदेश मिला।

हाड़ी रानी की चिंता

जब संदेश वाहक उन्हें यह संदेश देने पहुंचा, तब रावत गहरी नींद में थे़ रानी सज-धज कर अपने राजा को हंसी-ठिठोली से जगाने आयी थीं। द्वारपाल ने जब संदेश वाहक के आने की सूचना दी, तो सरदार ने रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा और संदेश वाहक की ओर मुखातिब हुए़ ।

उसने राजा के हाथों में राणा राज सिंह का वह पत्र थमा दिया, जिसमें उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने के लिए हाड़ा सरदार को सैनिकों के साथ बुलावा भेजा था। एक क्षण की भी देर न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उनके पास पहुंचे।

केसरिया पोशाक पहने युद्ध वेश में सजे पति को देख कर हाड़ी रानी चौंक पड़ी, वह अचंभित थीं। कहां चले स्वामी? सरदार ने कहा, मुझे यहां से अविलंब निकलना है।  हंसते-हंसते विदा दो, पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो,  हाड़ा सरदार का मन आशंकित था।  सचमुच ही यदि न लौटा तो मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा? दूसरी ओर, हाड़ी रानी ने भी अपने आंसुओं को पी लिया।

पति विजयश्री प्राप्त करें, इसके लिए रानी ने कर्तव्य की राह में अपने मोह का त्याग किया। उन्होंने झटपट आरती का थाल सजाया। पति के ललाट पर तिलक लगाया, उनकी आरती उतारी और कहा, मैं धन्य हो गयी ऐसा वीर पति पाकर। आपके साथ तो हमारा जन्मों का साथ है। राजपूत माताएं तो इसी दिन के लिए पुत्र को जन्म देती हैं, आप जाएं स्वामी।

हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करते चले जा रहे थे। लेकिन उनके मन में रह-रह कर यह ख्याल आ रहा था कि कहीं मेरी नयी-नवेली पत्नी मुझे भुला न दे! वह मन को समझाते, पर बारंबार उनका ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उनसे रहा न गया, उन्होंने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों से रानी को संदेश भिजवाया कि मुझे भूलना मत, मैं जरूर लौटूंगा, साथ ही, हाड़ा सरदार ने पत्र वाहक के हाथों रानी से उनकी कोई प्रिय निशानी भी मंगवायी।

हाड़ी रानी पत्र पढ़ कर सोच में पड़ गयीं। बायुद्धरत पति का मन अगर मेरी याद में ही रमा रहा, उनकी आंखों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा, तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे? उनके मन में एक विचार कौंधा़ वह सैनिक से बोलीं, मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी दे रही हूं। इसे थाल में सजा कर, सुंदर वस्त्र से ढंक कर अपने वीर सरदार के पास पहुंचा देना। लेकिन ध्यान रहे, इसे कोई और न देखे़  वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी उन्हें दे देना।
 à¤¨à¤¿:शब्द संदेश वाहक
हाड़ी रानी के इस पत्र में लिखा था, प्रिय! मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें, मैं तो चली़  अब स्वर्ग में तुम्हारी राह देखूंगी। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपना सिर काट डाला।  धड़ से अलग होकर वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सैनिक की आंखों से अश्रुधारा बह निकली, लेकिन, कर्तव्य कर्म कठोर होता है।

उसने सोने की थाल में हाड़ा रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग की चुनरी से उसे ढंका और उसे ले कर भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा।

सरदार ने अपने दूत से पूछा, रानी की निशानी ले आये? सैनिक ने कांपते हाथों से थाल उनकी ओर बढ़ा दिया़  हाड़ा सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखते रह गये। उनके मुख से केवल इतना निकला, ओह रानी! तुमने यह क्या कर डाला? अपने प्यारे पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली! खैर, मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।

हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। अपनी रानी का सिर गले में लटका कर वह शत्रुओं पर टूट पड़े़  उन्होंने ऐसा अप्रतिम शौर्य दिखाया कि उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।

हाड़ा सरदार

अपनी आखिरी सांस तक वह लड़ते रहे़ औरंगजेब की सेना को उन्होंने तब तक आगे बढ़ने नहीं दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़ कर भाग नहीं गया था। इतिहासकार इस विजय को श्रेय हाड़ा सरदार को अपनी रानी से मिली इस अनोखी निशानी को देते हैं।