महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरवरी 1707 में हुआ। राजा सूरजमल सुयोग्य शासक था। उसने ब्रज में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य को बना इतिहास में गौरव प्राप्त किया। उसके शासन का समय सन् 1755 से सन् 1763 है। वह सन् 1755 से कई साल पहले से अपने पिता बदनसिंह के शासन के समय से ही वह राजकार्य सम्भालता था। सूरजमल की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई। एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया। उनकी मृत्यु सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) में हुई थी। उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी।
मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है। उनके जन्म को लेकर यह लोकगीत काफ़ी प्रचलित है।
'आखा' गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी.
धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी.
भइयन को राख्यो राजी, चाकी चहुं दिस नौबत बाजी.'
वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे। महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे। सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे। सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी।
सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे।
महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी।
यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया।
मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है
महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है।
इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया।
महाराजा सूरजमल के जीवन की कहानी जब वे अफलातुन कहलाए
जब दिल्ली पर मुगलबादशाह अहमदशाह का राज था बादशाह के दरबार मेँ एक पंडित रहता था पंडित कि पत्नी रोज पंडित को खाना ले जाति थी...एक दिन पंडित कि बेटि हरजोत अपने पिता को खाना लेके गई हरजोत जब वापस घर चली गई तो बादशाह ने पंडित को पूछा तेरी बेटी है क्या ये पंडित बोला हाँ,तो बादशाह बोला तुने अब तक ये बात हमसे छुपाई कोई बात नि पर सुन हरजोत हमारे दिल को छू गई मै उसे अपनी बेगम बनाना चाहता हूँ।
पंडित बोला हुजूर दया करो ऐसा मत सोचो आपकि बेटी है बादशाह बोला बेटी थी पंडित पर अब कुछ अलग है पंडित गिडगिडाने लगा और बादशाह के पैरोँ मेँ गिर गया लेकिन पत्थर दिल मेँ दया कहाँ बादशाह बोला सुन सात दिन मेँ हरजोत का डोला ले लिया जाएगा।
पंडित रात को घर पहुंचा और चिंता कि लखिरि माथे पर लेके बैठ गए तो पंडितानी और बेटी ने पूछा तो पंडित कि आँखोँ से आंसुओँ कि धार तो हरदौल बोली पिताजी जो हुआ है बताओ तो पंडित ने सारा दुखडा बेटी को रो दिया बेटी बोली पिताजी मेँ र्धम ना बदलूंगी चाहे जान चली जाए पंडित पंडितानी को रोते 2 रात निकल गई सुबह बादशाह के सैनिकोँ ने पंडित के घर को छावनि बना दिया और बादशाह ने आदेश दिया कि पंडित फालतु बोले तो घर मे आग लगा देना तो एक सैनिक ने बादशाह सलाह दि कि आग लगाने से फायदा नाए हरजोत को जेल मेँ डाल दिया जाए और मारपीट खाके राजी हो जाएगी तो बादशाह ने हरदौल को जेल मेँ डलवा दिया और यातनाए दि जाने लगी।
दूसरे दिन एक भंगी हरिजन औरत जो कि महल मेँ झाडु लगाने आति थी वो छुप के हरदौल से मिली , जिस वक्त कि ये घटना थी तब दिल्ली के आसपास कोई भी राजा लडने को तैयार ना था तो भाइयो उस औरत ने हरजोत को बताया कि बेटि कोइ भी तेरि सहायता ना है हिन्दुओ मे बस एक सक्श है वो लोहागढ का राजा सूरजमल जो जाट का पूत है तू उसको पत्र लिख तेरी जरुर सुनेगा।
जेल मे कलम ना थी तो भंगी औरत एक मोर के पंख का टुकडा लाई और हरजोत ने अपने खून से पत्र लिखा लिखते2 आंसु भी पत्र पर गिर गए थे और औरत को अपने घर का पता बताके पत्र उसको सोँप दिया और भंगि औरत ने पत्र पंडित को दिया और कहा जाओ लोहागढ और अपनी बेटी कि इज्जत के रक्षक को ये पत्र पहुँचाओ जहाँ हर फरियादि कि फरियाद सुनी जाती है दरबार मेँ आपकि भी सुनी जाएगी तो पंडितानि पत्र को लेके दरबार मेँ पहुँच जाती है पत्र मेँ वो मोर का पंख भी रखा था दरबार सजा हुआ था और पंडितानी दहाड मार2 के रोने लगी तो सुरजमल बोले कौन हैये दुखिया इसकि फरियाद सुनो।
पत्र पढके राजा को सुनाया गया तो सूरजमल ने कहा बस पंडितानि तु वापस दिल्ली जा और उसके साथ एक वीरपाल नाम के गुजजर सैनिक भेजा और कहा कि बादशाह को कहना कि या तो हरजोत को छोड या दिल्ली छोड...तो वीरपाल गुज्जर मुगल दरबार मेँ पहुचा और बादशाह को सूरजमल का आदेश सुनाया तो बादशाह हंसते हुए कहता है कि हमेँ मालुम था कि सूरजमल जरुर हमसे पंगा लेगा ठीक है सुनो वीरपाल सूरजमल से कहना कि जाटनी भी साथ लाए पंडितानि क्या छुडाएगा वो।
बस फिर क्या था वीरपाल ने दरवार मेँ तलवार का कहर छोड दिया मुगलोँ से लडते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गया लेकिन एक बात कहके गया था वीरपाल कि"तू तो का जाटनी लेगौ पर तेरी नानी याद दिला जाएगौ वो पूत जाटनी कौ जायौ है"जब ये खबर भरतपुर मे सूरजमल को मिली तो आग बबूला हो गये और बोले"अरे आंवे लोहागढ के जाट और दिल्ली मै मचा दो लूटम पाट"और दिल्ली पर चढाई करने तैयारि जल्दी करली गई।
आज जहाँ गुडगांव बसा हुआ है वहाँ अपना डेरा डाल दिए और एक सैनिक को बोले कि बादशाह को कहो हिन्दू बहादुर आए है तो बादशाह भी अपनी सेना लेके मैदान मे आता है और युद्द होने लगता है याद दिलाना चाहता हूँ कुछ ही देर मेँ मुगलोँ के छक्के छूट गए और बादशाह को चाल सुझी एवं सूरजमल के पैरोँ मेँ गिरके गिडगिडाने लगा और गाय कि शौगंध महाराजा को खिलाने लगा सूरजमल का ह्रदय पिगल गया और युद्द समाप्त हो गया ।
हरजौत की शादि सूरजमल ने अपने र्खचे से कराई बादशाह ने महाराजा को बोला कि अब हमारि लडाई नाहै सो कुछ दिन दिल्ली मेँ ही रहो लालकिले मे रहने का इंतजाम है सूरजमल चाल को ना समझ पाए और एक दिन जब महाराजा घूमने नदी के किनारे निकले तो धोके मार दिया गया और बादशाह ने अपनी औकात दिखादि फिर बाद मेँ पुत्र जवाहर सिहँ ने दिल्ली को जीता जिसकि याद मेँ आज भी जवाहर बुर्ज भरतपुर मेँ बनवाया गया जिसपर वंशजो का राजतिलत होता था।
उस काल की दो कहावतें आज भी प्रसिद्ध है-
1.तीर चलें तलवारें चलें,कटारैं चलें इशारौं ते।
अल्लाह मियाँ भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आले तें।।
सूरजमल वही जाट राजा हैं जिनकी मृत्यु पर मुगलों ने कहा था कि
2. जाट मरया तब जाणिये,जब तेरहंवी हो जा" ( ये कहावत बहुत सारी हिंदी फिल्मो मै भी बोली गयी है ), क्योंकि मगलों को यकीन ही नंही हुआ था कि महाराजा सूरजमल जैसा सुरमा अकस्मात मृत्यु को भी प्राप्त हो सकता है।
पानीपत की लड़ाई
सन 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा। मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक़ लेकर मराठों और जाटों ने संधि की; लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए।
वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को ख़त्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे। इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये। भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया। मराठा सरदार को अपनी ताक़त पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की।
युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हज़ार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हज़ार थीं। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये। उस युद्ध में सैनिक बहुत संख्या में मारे गये। भरतपुर के ‘मथुरेश’ कवि ने इस स्थिति पर दुख जताते हुए कहा है −
“नाँच उठी भारत की भावी सदाशिव शीश, ओंधी हुई बुद्धि उस जनरल महान की ।
होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की।।”
पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रुषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी
सूरजमल की मृत्यु
रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था। जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी।
सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी। जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा ज़माना पड़ा; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा। उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी। सूरजमल की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई।
एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) में हुई थी। उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी।
मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है। उनके जन्म को लेकर यह लोकगीत काफ़ी प्रचलित है।
'आखा' गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी.
धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी.
भइयन को राख्यो राजी, चाकी चहुं दिस नौबत बाजी.'
वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे। महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे। सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे। सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी।
सूरजमल ने अभेद लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया था, जिसे अंग्रेज 13 बार आक्रमण करके भी भेद नहीं पाए। मिट्टी के बने इस किले की दीवारें इतनी मोटी बनाई गयी थी कि तोप के मोटे-मोटे गोले भी इन्हें कभी पार नहीं कर पाए. यह देश का एकमात्र किला है, जो हमेशा अभेद रहा।
दिल्ली की लूट
सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे।
महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी।
यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया।
मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है
महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है।
इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया।
महाराजा सूरजमल के जीवन की कहानी जब वे अफलातुन कहलाए
जब दिल्ली पर मुगलबादशाह अहमदशाह का राज था बादशाह के दरबार मेँ एक पंडित रहता था पंडित कि पत्नी रोज पंडित को खाना ले जाति थी...एक दिन पंडित कि बेटि हरजोत अपने पिता को खाना लेके गई हरजोत जब वापस घर चली गई तो बादशाह ने पंडित को पूछा तेरी बेटी है क्या ये पंडित बोला हाँ,तो बादशाह बोला तुने अब तक ये बात हमसे छुपाई कोई बात नि पर सुन हरजोत हमारे दिल को छू गई मै उसे अपनी बेगम बनाना चाहता हूँ।
पंडित बोला हुजूर दया करो ऐसा मत सोचो आपकि बेटी है बादशाह बोला बेटी थी पंडित पर अब कुछ अलग है पंडित गिडगिडाने लगा और बादशाह के पैरोँ मेँ गिर गया लेकिन पत्थर दिल मेँ दया कहाँ बादशाह बोला सुन सात दिन मेँ हरजोत का डोला ले लिया जाएगा।
पंडित रात को घर पहुंचा और चिंता कि लखिरि माथे पर लेके बैठ गए तो पंडितानी और बेटी ने पूछा तो पंडित कि आँखोँ से आंसुओँ कि धार तो हरदौल बोली पिताजी जो हुआ है बताओ तो पंडित ने सारा दुखडा बेटी को रो दिया बेटी बोली पिताजी मेँ र्धम ना बदलूंगी चाहे जान चली जाए पंडित पंडितानी को रोते 2 रात निकल गई सुबह बादशाह के सैनिकोँ ने पंडित के घर को छावनि बना दिया और बादशाह ने आदेश दिया कि पंडित फालतु बोले तो घर मे आग लगा देना तो एक सैनिक ने बादशाह सलाह दि कि आग लगाने से फायदा नाए हरजोत को जेल मेँ डाल दिया जाए और मारपीट खाके राजी हो जाएगी तो बादशाह ने हरदौल को जेल मेँ डलवा दिया और यातनाए दि जाने लगी।
दूसरे दिन एक भंगी हरिजन औरत जो कि महल मेँ झाडु लगाने आति थी वो छुप के हरदौल से मिली , जिस वक्त कि ये घटना थी तब दिल्ली के आसपास कोई भी राजा लडने को तैयार ना था तो भाइयो उस औरत ने हरजोत को बताया कि बेटि कोइ भी तेरि सहायता ना है हिन्दुओ मे बस एक सक्श है वो लोहागढ का राजा सूरजमल जो जाट का पूत है तू उसको पत्र लिख तेरी जरुर सुनेगा।
जेल मे कलम ना थी तो भंगी औरत एक मोर के पंख का टुकडा लाई और हरजोत ने अपने खून से पत्र लिखा लिखते2 आंसु भी पत्र पर गिर गए थे और औरत को अपने घर का पता बताके पत्र उसको सोँप दिया और भंगि औरत ने पत्र पंडित को दिया और कहा जाओ लोहागढ और अपनी बेटी कि इज्जत के रक्षक को ये पत्र पहुँचाओ जहाँ हर फरियादि कि फरियाद सुनी जाती है दरबार मेँ आपकि भी सुनी जाएगी तो पंडितानि पत्र को लेके दरबार मेँ पहुँच जाती है पत्र मेँ वो मोर का पंख भी रखा था दरबार सजा हुआ था और पंडितानी दहाड मार2 के रोने लगी तो सुरजमल बोले कौन हैये दुखिया इसकि फरियाद सुनो।
पत्र पढके राजा को सुनाया गया तो सूरजमल ने कहा बस पंडितानि तु वापस दिल्ली जा और उसके साथ एक वीरपाल नाम के गुजजर सैनिक भेजा और कहा कि बादशाह को कहना कि या तो हरजोत को छोड या दिल्ली छोड...तो वीरपाल गुज्जर मुगल दरबार मेँ पहुचा और बादशाह को सूरजमल का आदेश सुनाया तो बादशाह हंसते हुए कहता है कि हमेँ मालुम था कि सूरजमल जरुर हमसे पंगा लेगा ठीक है सुनो वीरपाल सूरजमल से कहना कि जाटनी भी साथ लाए पंडितानि क्या छुडाएगा वो।
बस फिर क्या था वीरपाल ने दरवार मेँ तलवार का कहर छोड दिया मुगलोँ से लडते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गया लेकिन एक बात कहके गया था वीरपाल कि"तू तो का जाटनी लेगौ पर तेरी नानी याद दिला जाएगौ वो पूत जाटनी कौ जायौ है"जब ये खबर भरतपुर मे सूरजमल को मिली तो आग बबूला हो गये और बोले"अरे आंवे लोहागढ के जाट और दिल्ली मै मचा दो लूटम पाट"और दिल्ली पर चढाई करने तैयारि जल्दी करली गई।
आज जहाँ गुडगांव बसा हुआ है वहाँ अपना डेरा डाल दिए और एक सैनिक को बोले कि बादशाह को कहो हिन्दू बहादुर आए है तो बादशाह भी अपनी सेना लेके मैदान मे आता है और युद्द होने लगता है याद दिलाना चाहता हूँ कुछ ही देर मेँ मुगलोँ के छक्के छूट गए और बादशाह को चाल सुझी एवं सूरजमल के पैरोँ मेँ गिरके गिडगिडाने लगा और गाय कि शौगंध महाराजा को खिलाने लगा सूरजमल का ह्रदय पिगल गया और युद्द समाप्त हो गया ।
हरजौत की शादि सूरजमल ने अपने र्खचे से कराई बादशाह ने महाराजा को बोला कि अब हमारि लडाई नाहै सो कुछ दिन दिल्ली मेँ ही रहो लालकिले मे रहने का इंतजाम है सूरजमल चाल को ना समझ पाए और एक दिन जब महाराजा घूमने नदी के किनारे निकले तो धोके मार दिया गया और बादशाह ने अपनी औकात दिखादि फिर बाद मेँ पुत्र जवाहर सिहँ ने दिल्ली को जीता जिसकि याद मेँ आज भी जवाहर बुर्ज भरतपुर मेँ बनवाया गया जिसपर वंशजो का राजतिलत होता था।
उस काल की दो कहावतें आज भी प्रसिद्ध है-
1.तीर चलें तलवारें चलें,कटारैं चलें इशारौं ते।
अल्लाह मियाँ भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आले तें।।
सूरजमल वही जाट राजा हैं जिनकी मृत्यु पर मुगलों ने कहा था कि
2. जाट मरया तब जाणिये,जब तेरहंवी हो जा" ( ये कहावत बहुत सारी हिंदी फिल्मो मै भी बोली गयी है ), क्योंकि मगलों को यकीन ही नंही हुआ था कि महाराजा सूरजमल जैसा सुरमा अकस्मात मृत्यु को भी प्राप्त हो सकता है।
पानीपत की लड़ाई
सन 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा। मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक़ लेकर मराठों और जाटों ने संधि की; लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए।
वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को ख़त्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे। इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये। भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया। मराठा सरदार को अपनी ताक़त पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की।
युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हज़ार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हज़ार थीं। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये। उस युद्ध में सैनिक बहुत संख्या में मारे गये। भरतपुर के ‘मथुरेश’ कवि ने इस स्थिति पर दुख जताते हुए कहा है −
“नाँच उठी भारत की भावी सदाशिव शीश, ओंधी हुई बुद्धि उस जनरल महान की ।
होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की।।”
पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रुषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी
सूरजमल की मृत्यु
रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था। जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी।
सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी। जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा ज़माना पड़ा; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा। उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी। सूरजमल की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई।
एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) में हुई थी। उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी।